घ्यू सकरांत क चुपाड़ा हाथ ; बेदुआ रवाट् अर तिमालक पात।
आप सभी को घी सक्रांति / सिँह सक्रांति की हार्दिक बधाई एवं असीम शुभकामनायें!
घ्यू सकरांत क चुपाड़ा हाथ।
बेदुआ रवाट् अर तिमालक पात।।
घी सक्रांति /सिँह सक्रांति के महापुण्य काल का लाभ उठायें।
घी सक्रांति / सिँह सक्रांति का महापुण्य काल
प्रातः 11:31 बजे से दोपहर 01:44 तक
हरेला गीत
जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रइतिहास ये,
अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।”
उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल एवं कुमाऊँ क्षेत्र में मनाया जाने वाला हरेला त्यौहार को घी सक्रांति पर सम्पन्न माना जाता है। घी सक्रांति अथवा घी त्यार अथवा सिंह सक्रांति अथवा ओलग नाम से प्रसिद्ध है। जब कर्क राशी से सिँह राशी मे सूर्य प्रवेश करते हैँ तो वह सिँह सक्रांति कहलाती है। आइये पहले 'हरेला' के विषय मे थोड़ा जान लें।
हरेला पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार आता है-
1- चैत्र माह में - प्रथम दिन हरियाली बोई जाती है व नवमी को काटी जाती है। इसे सनातनी लोग 'चैत्र नवरात्रि' पुकारते हैँ। चैत्र माह में बोया/काटा जाने वाला हरेला गर्मी के आने की सूचना देता है।
2- श्रावण माह में - सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में हरियाली बोई जाती है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटी जाती है। इसे 'गुप्त नवरात्रि' भी पुकारा जाता है। श्रावण माह में मनाये जाने वाला हरेला पर्यावरणीय दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है क्यूंकि यह हरियाली का प्रतीक है। इस समय वृक्षारोपण की प्रथा भी खूब प्रचल्लन मे है।
3- आश्विन माह में - आश्विन माह में नवरात्र के पहले दिन बोई जाती है और नवमी अथवा दशहरा के दिन काटी जाती है। इसे सनातनी लोग 'शरद नवरात्रि' पुकारते हैँ। आश्विन माह की नवरात्रि में बोया जाने वाला हरेला सर्दी के आने की सूचना देता है।
'हरेला' परम्परा कडी मे अब 'वृक्षाबंधन' भी।
हरियाली या हरेला शब्द पर्यावरण के काफी करीब है। हरेला मे सांस्कृतिक आयोजन के साथ पौधारोपण भी किया जाता है। जिसमें लोग विभिन्न प्रकार के छायादार व फलदार पौधे रोपते हैं।
वर्ष 2009 से 'हरेला' की पौराणिक काल से चली आ रही परम्परा मे एक कडी और जुड़ गईं है। वह है 'वृक्षाबंधन अभियान' जिसे उत्तराखंड आंदोलन के प्रख्यात सेनानी मनोज ध्यानी द्वारा अभिकल्पित कर प्रारम्भ किया गया। बताते चले कि उन्हें प्रथम "सैनिक शिरोमणि" होने का गौरव भी प्राप्त है। वृक्षाबंधन वस्तुतः 05 जून को विश्व पर्यावरण दिवस से प्रारम्भ हो जाता है। इस अभियान मे जुड़े अभियानकर्मी सावन भादों आने से पूर्व पौधारोपण हेतु स्थान चयन जैसे कि बंजर भूमि, सूखे तालाब के किनारे, सुखी नदी तट, बुग्याल व ताल क्षेत्र, वन भूमि, स्कूल, कॉलेज, पंचायत प्रांगण, सड़क किनारे आदि का चयन करते हैँ। वह पौधारोपण हेतु गड्ढा तैयार करते हैँ, क्षेत्र विशेष मे सही पौधारोपण हेतु पौधा चयन व किस्म, बीज बम (बीज गोला) आदि कि तैयारी पूर्ण करते हैँ। व सावन- भादों वर्षा ऋतु मे बडी संख्या मे छाँवदार व फलदार वृक्षों के साथ औषधीय पौधा रोपण भी करते हैँ।
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श्रावण मास आने से नौ दिन पूर्व आषाढ़ मास में हरेला बोने के लिए किसी थालीनुमा पात्र या टोकरी का चयन किया जाता है। इसमें मिट्टी डालकर गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि पांच / सात प्रकार के अनाज के बीजों को बोया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोज सुबह को शुद्ध जल का छिड़काव किया जाता है। दसवें दिन बोये गए हरेला को काटे जाने की प्रथा है। 4 से 6 इंच लम्बे हो चुके अनाज के इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। पूजा पद्द्ति सम्पन्न होने के उपरांत परिवार के सदस्य इन्हें अपने मस्तक अथवा कर्णो पर धारण करते हैं।
हरेला घर में सुख-समृद्धि व शांति का प्रतीक है। हरेला बोने वाले कामना करते हैँ कि उनके द्वारा बोया गया हरेला हराभरा व लम्बा हो। उनका विश्वास होता है कि यदि हरेला अच्छा होगा तो उनकी सर्व फसल भी अच्छी ही पैदावर देंगी।
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