सिलक्यारा की त्रासदी में छुपी है हिमालय की वेदना!

'विश्व पहाड़ दिवस' के सुअवसर पर

प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम एक खुली पाती!



 
लब्ध प्रतिष्ठ सेवा में :

श्रीमान पुष्कर सिँह धामी जी,
मुख्यमंत्री, उत्तराखंड प्रदेश,
देहरादून, उत्तराखंड।               दिनांक: सोमवार, 11 दिसंवर 2023

विषय : सिलक्यारा में छुपी है समूचे हिमालय की वेदना।

मेरे जनप्रिय शिष्ट माननीय मुख्यमंत्री महोदय :

उत्तरकाशी जनपद के सिलक्यारा में धवस्त हुई सुरंग में फंसे जिन 41 श्रर्मिंकों की प्राण रक्षा उत्तराखंड सरकार आपके कुशल नेतृत्व में कर पाई है उस हेतु आपको एवं उस कार्य को सफल निर्मित करने वाले प्रत्येक हाथ एवं विचार को  'विश्व पहाड़ दिवस' के सुअवसर पर 💐 हृदय की गहराई से बधाई एवं सादर शुभकामनायें! 💐

माननीय, सिलक्यारा (उत्तरकाशी, उत्तराखंड) में 41 श्रमिकों की प्राण रक्षा व सकुशल वापसी हेतु जब पूर्ण प्रयोजन संचालित किया जा रहा था तो प्रत्येक क्षण मैं परमपिता परमेश्वर एवं माँ भगवती से यही प्रार्थना करता रहा था कि 'सिलक्यारा का मनोरथ' सफल हो जाए और सभी 41 श्रमिक भाई जीवन दान प्राप्त करके अपने अपने प्रिय परिजनों के बीच सुरक्षित लौट आएं। अतः 'सिलक्यारा के मनोरथ' की सफलता पर अपार हर्ष व्याप्त हो रहा है। आपको बारम्बार ढेर सारी शुभाशीष!

उत्तरकाशी की ईष्ट देवी माँ शक्ति "माँ पार्वती" एवं "आदि पुरुष शिव" कृपा बरसी 'सिलक्यारा मनोरथ' में।

माननीय, उत्तरकाशी की ईष्ट देवी 'माँ शक्ति' और सनातन भूमि में अध्यात्म के संवांहक 'कैलाशपति' ने हिमालय एक बड़ा संदेश सिलक्यारा की घटना के माध्यम से हम सबके लिए प्रवाहित कर रहे हैँ।

सिलक्यारा में पढ़ें माँ शक्ति द्वारा निहित 👉🏻 हिमालय का गूढ संदेश।

माननीय, मैंने गहराई से इस बात का अध्ययन किया है कि आप आद्य शक्ति माँ भगवती के अनन्य भक्त हैँ। यही कारण है कि शरद नवरात्र हों अथवा चैत्र नवरात्र अथवा गुप्त नवरात्र, आप अपनी जीवन संगिनी संग माँ शक्ति के विभिन्न स्वरूपो जैसे कि माँ पूर्णा गिरी, माँ डाट काली, माँ शाकुंबरी इत्यादि का पाठ श्रवण व पूजन सम्पन्न करवाते हुए दृष्टिगोचर होते रहते हैँ।

अध्यात्म में ऐसी गहरी अभिरूचि एवं माँ शक्ति के प्रति अनन्त भक्तिभाव, प्रेम व समर्पण से हृदयमन गद गद हो उठता है। यह आज के युग में किसी भी जनसेवक एवं राजकीय नेतृत्व हेतु सर्वथा आवश्यक एवं सबके लिए अनुकरणीय गुण भी है।

आपसे निवेदन है कि मनन करें कि उत्तरकाशी की ईष्ट देवी "माँ शक्ति" के आशीर्वाद से 'सिलक्यारा का मनोरथ' पूर्ण हुआ है। व सभी 41 श्रमिक सकुशल बाहर निकल पाए हैँ। माँ अपने भक्त पुत्र (अर्थात आप) की प्रतिष्ठा में कोई भी प्रतिकूल प्रभाव नहीं निष्पादित करना चाहती थी। परन्तु एक चिरंजीवी सत्य यह भी हैं कि 'माँ शक्ति' एवं 'आदि पुरुष शिव' सिलक्यारा की घटना द्वारा "हिमालय की वेदना" की ओर समूचे विश्व का ध्यान आकृष्ट कर रहे थे।

हिमालय का हम सभी को स्पष्ट संदेश है "समय रहते संभल जाओ"।

माननीय, मेरा निवेदन है कि स्वयं माँ शक्ति ने आपको सिलक्यारा में हुई घटना का विशेष प्रत्यक्षदर्शी बनाया है अतः इसमें निहित गूढ संदेश हेतु कृपया इस विवेचना व विश्लेषण पर अवश्य ध्यान दें।:-

  1. आपने आपदा प्रबंधन की प्रदेश की सर्वश्रेष्ठ संस्था एसडीआरएफ (SDRF) का प्रयोग किया परन्तु उनका अथक प्रयास अरम्भिक दौर में सफल नहीं हो पाया।;
  2. आपने प्रथमतः स्थानीय स्तर पर उपलब्ध आधुनिक मशीनों व उपकरणों का प्रयोग करके सिलक्यारा के श्रमिकों को सकुशल निकालने का प्रयास किया वह विफल सिद्ध हुआ।;
  3. आपने तदुपरान्त दिल्ली आदि बाहर के प्रदेशों से और अधिक मशीनों व उपकरणों को मंगवाया और उनका प्रयोग किया परन्तु उससे भी श्रमिकों को सफलता पूर्वक निकालने का मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ है।;
  4. आपने सर्व दक्ष विशेषज्ञ (यहाँ तक कि विदेश से भी) आमंत्रित किये परन्तु सिलक्यारा में फंसे श्रमिकों तक आप सिर्फ खिचड़ी पहुंचाने तक ही सफलता अर्जित कर सके थे.;
  5. आपने अंततः आपदा प्रबंधन की राष्ट्र की सर्वोच्च संस्था एनडीआरएफ (NDRF) व सेना तक की की सेवाएं प्राप्त करनी पड़ गईं थी।;
  6. थक हारकर भारत में आशा बाँधने की अंतिम किरण सेना को कार्य हेतु आमंत्रित किया गया था तब यह निर्णय हुआ था कि आधुनिक मशीनों एवं तकनीकी का परित्याग करके सर्व 41 श्रमिकों को सकुशल निकालने हेतु manual work फोर्स RAT MINERS द्वारा कार्य सम्पादित किया जाए व अंततः सुखद सफलता भी प्राप्त हुई।;
  7. इस पूरी प्रक्रिया संचालन के बीच आप श्रमिकों की प्राण रक्षा पर अपनी प्रतिबद्धता पर कायम रहकर सिलक्यारा से ही तब तक सरकार संचालित करने लग गए थे जब तक कि सुरंग में फंसे श्रमिकों को सुरक्षित बाहर नहीं निकाल लिया जाता। प्रदेश के मुख्य सचिव भी आपके निर्णय प्रभाव में (ईच्छा वश अथवा अनिच्छा में) सिलक्यारा पहुंचने लगे और ऐसा ही अनुसरण प्रदेश के मंत्री, नेतागण (पक्ष -विपक्ष व स्थानीय स्तर), विधायक व नौकरशाह आदि द्वारा भी किया गया।

(कहते हैँ अंत भला तो सब भला - परिणाम सुखद रहा और 41 श्रमिक सकुशल सुरंग से बाहर आ पाए। पर यह अवश्य मनन करें कि संघर्ष से प्राप्त राज्य उत्तराखंड की पर्वतीय अवाम की मांग की एक सूक्ष्म झलक सिलक्यारा घटना के मध्य प्रलक्षित हुई। उत्तराखंड की जनता सदैव से एक मांग के पीछे खड़ी रहीं है कि पहाड़ हेतु शासकीय कार्य पहाड़ से निष्पदित हों और उत्तराखंड की नीतियाँ पहाड़ों में ही सृजित हों व वहीं से संचालित होती रहें। ऐसी ही शासकीय क्रियाशीलता की मांग हेतु 'पहाड़ की राजधानी पहाड़ में' हेतु पूर्णकालिक राजधानी राजधानी गैरसैण की मांग आंदोलन समय से उठाती रही है। माननीय, धृष्टता माफ़ हो परन्तु मेरा सीधा एक प्रश्न यह है कि क्या 'सिलक्यारा' में बैठकर जिस प्रकार सरकार को निर्देशित किया गया वैसा समूचे समय गैरसैण पूर्ण कालिक राजधानी निर्मित करके नहीं किया जाना चाहिए था?)

माननीय, मेरे इस पत्र प्रेषण का उद्देश्य आपके उन अथक प्रयासों में मीन मेख निकालने का बिलकुल भी नहीं है जो कि सिलक्यारा में दृष्टिगोचर हुआ व उद्देश्य के प्रति आपकी व सरकार की गंभीरता पर प्रश्न चिन्ह लगाना मूढ़ता की श्रेणी में आएगी। परन्तु परिणाम में लगातार जो विलम्ब हुआ था उसमें मुझे ऐसा प्रतीत होता रहा है कि कोई एक अदृश्य शक्ति, ना केवल आपके हेतु बल्कि सर्व नीति नियंताओं और हम सभी के हेतु, एक गूढ संदेश हिमालय द्वारा प्रवाहित कर रही थी कि "समय रहते चेत जाओ, हिमालय में खिलवाड बन्द करो अन्यथा अब सब्र का बांध टूटने लगा है "

माननीय, आप जिस पद पर सुशोभित एवं विराजमान हैँ वहाँ आपके पास आंकड़ों का भंडार पसरा पड़ा होगा। परन्तु मैं पत्र का दायित्व पूर्ण करते हुए पिछले एक दशक (10 वर्ष के भीतर ही) की कुछ विशेष घटनाओं की ओर पुनः आपका ध्यानाकर्षण कर रहा हूँ।:-

  • जून 2013 में केदारनाथ में जलप्रलय उफनता है और हजारों की संख्या में भक्तगण / तीर्थंयात्री देहावसान को उस कारण मात्र से प्राप्त हुए थे।;
  • अप्रैल से मई सन 2016 में उत्तराखंड में 4,538 हेक्टर (11,210 एकड़ ) वन जलकर स्वाहा हो गए थे जिसमें दर्लभ हिमालय की वन प्रजातियाँ के साथ साथ कम से कम 07 नागरिकों के प्राण भी उस दावानल में स्वाहा हुए थे। यदि उत्तराखंड निर्माण की तिथि से बता करें तो 1,10,010 एकड़ (44,518 हेक्टर ) से भी अधिक वन ऐसे ही दावानल में स्वाहा हुए हैँ।;
  • 18 फरवरी 2021 को नंदा देवी ग्लेशियर के टूटने से प्रारम्भ हुई भुस्खलन की घटना से विष्णुघाट में 200 से अधिक श्रमिक एवं स्थानीय लोग मारे गए थे।
  • 04 अक्टूबर 2022 को द्रौपदी का डांडा के टूटने से 27 पर्वतरोही मृत्यु को प्राप्त हो गए थे।;
  • 09 जनवरी 2023 को पौराणिक नगर जोशीमठ (सनातन के सर्वोच्च विचारक आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित ज्योतिर्मठ) में 500 से अधिक घरों में दरार व भू धंसाव के आंकड़े उभरकर सामने आये। जिससे जोशीमठ नगर के हजारों की संख्या में स्थानीय निवासियों ने एक बड़े संकट के मध्य स्वयं को पाया है; और प्रकृति जनित एक सामाजिक तनाव भी पैदा हुआ है।;
  • सिलक्यारा में परियोजना तहत सुरंग धंसने के कारण 41 श्रमिक 17 दिनों तक वहाँ फंस गए।

देश के अन्य हिमालयी क्षेत्रों की बात की जाए जैसे कि अरुणाचल प्रदेश, हिमांचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, लद्दाख, दार्जलिंग क्षेत्र, पूर्वोत्तर हिमालयी राज्य अगरतला, असम, मेघालय, मिजोरम, मणीपुर, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा आदि तो वहाँ भी अनेक हिमालयी पर्वतीय क्षेत्र में वनाग्नि, भूस्खलन, अतिवृष्टि, बादल फटने आदि की घटनाओं में भयावह रुप में आकस्मिक वृद्धि दर्ज हो रही है।

राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर के भुविज्ञानी, प्रकृति शोधकर्ता, बुद्धिजीवियों व सनातन प्रेमियों का मत है कि विकास के नाम पर संचालित अनियंत्रित योजनाओं, खनन, बड़े बांध निर्माण इत्यादि से हिमालय में भूमण्डलीय ताप का वेग सर्वाधिक तेजी से बढ़ रहा है और इससे हिमालय में लगातार प्राकृतिक आपदाओं के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैँ।

हिमालय की चिंता करना राष्ट्र व मानव हितकारी है।

माननीय, पौराणिक काल से हम यह शिक्षण प्राप्त करते आये हैँ कि हिमालय भारत का मुकुट भी है और भारत का रक्षक भी। मुझे स्मरण आता है कि सन 1996 में मेरे नेतृत्व में भारत सरकार से उत्तराखंड राज्य निर्माण हेतु छात्र युवा अभियान दल गृह मंत्रालय, भारत सरकार मुख्यालय नार्थ ब्लॉक, दिल्ली में मिला था। इस वार्ता जिसमें गृह मंत्रालय भारत सरकार के तत्कालीन गृह राज्य मंत्री प्रोफेसर कामसन एवं सिबते रिजवी एवं गृहमंत्रालय के साथ साथ भारत सरकार के अन्य मंत्रालयों के सर्वोच्च अधिकारी उपस्थित रहे थे, को एक  विस्तृत प्रतिवेदन "ब्लूप्रिंट ऑफ उत्तराखंड" सौपा गया था। हिमालयी विशेषज्ञयों, विधि वेताओं, पर्यावरण प्रेमियों व संविधान सलाहकारों से परामर्श करके हमने जो "ब्लूप्रिंट ऑफ उत्तराखंड" प्रतिवेदन निर्मित किया था, उसको वार्ता में सबके समक्ष पढ़ते हुए मैंने जिन विषय बिंदुओं पर सर्वाधिक जोर दिया था कि उसमें स्पष्टतः 'हिमालय की चिंताओं' को रेखांकित किया गया था। उस ड्राफ्ट में उत्तराखंड राज्य निर्माण हेतु ठोस विद्यायी उपाय बनाने के साथ साथ 'हिमालय के विषयगत खासकर उत्तराखंड हिमालय की अन्य चिंताओं' को लेकर जो कथन किया गया था वह आपके समक्ष पुनः रख रहा हूँ।

  1. हिमालय भारत ही नहीं अपितु समूचे मानव समाज के लिए विशाल वन क्षेत्रों में वृक्षों की भरमार एवं नदियों तालों में algae होने के कारण ऑक्सीजन बैंक (Oxygen Bank) का कार्य करती है और शुद्ध प्राण वायु का उत्सर्जन करती है।;
  2. हिमालय, इसी प्रकार से अपने ग्लेशियरों, जल संवर्धन करने वाले वनों, तालों के कारण वाटर बैंक (Water Bank) का भी कार्य करती है।
  3. हिमालय के प्राकृतिक गुणों की भरमार से यह सौर विकरण का संकट पैदा करने वाली ग्रीन हाउस गैस के उन्मूलन के स्वतः कारगर उपाय बनती है और स्वयं में Ozone Layer Protection Factor (OLPF) का भी कार्य करती है।

गृह मंत्रालय भारत सरकार को वार्ता दौर में सौंपे गए प्रतिवेदन "ब्लूप्रिंट ऑफ उत्तराखंड" का सार तब यह था कि हिमालय पृथ्वी के लिए अद्भुत धरोहर है अतः हिमालय में रहने वाले नागरिकों हेतु प्रत्येक विकासीय मॉडल में पर्यावरणीय एवं परिस्थितिकी संरक्षण और संवर्धन को ही सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की जाए। इस विचारानुसार उन वार्ताओं में मैंने व अन्य सहयोगी संगठनों ने संयुक्त रुप में भारत सरकार से अनुरोध किया था कि उत्तराखंड राज्य गठन का शुभारम्भ दीर्घकालिक योजना मॉडल तैयार करते हुए किया जाए व उस हेतु जिस प्रकार नेपाल के काठमांडू में International Centre for Mountain Development (ICIMOD) स्थित है उसकी तर्ज पर उत्तराखंड में भी रिसोर्स सेंटर फॉर हिमालय (Resource Centre For Himalayas) का सर्वप्रथम गठन किया जाए। हमने तत्कालीन समय में भारत सरकार से तब यह भी अनुरोध किया था कि हिमालय के पर्वतीय अंचलों विशेषतः ग्रामीण परिवेश में गुजर बसर करने वाली अवाम चुंकि हिमालय संरक्षण व संवर्धन के प्रति सदैव सर्वाधिक संवेदनशील रहती आई है अतएव हिमालय में रहने वाले लोगों की आर्थिक प्रगति व खुशहाली हेतु विशेष वित्तीय सहायता राशि "ग्रीन बोनस" (Green Bonus) की रुप रेखा निर्मित की जाए। व उस हेतु उत्तराखंड हिमालय के निवासियों हेतु प्रत्येक वित्त वर्ष में ₹2,000 करोड़ की राशि तत्कालीन समय में अविलम्ब अवमुक्त की मांग उठाई गईं थी। व उसको ₹5,000 करोड़ प्रति वर्ष करने की मांग की गईं थी। जो कि आज की तिथि पर न्यूनतम ₹29,000 करोड़ से ₹36,000 करोड़ प्रति वर्ष उत्तराखंड हिमालय हेतु होनी चाहिए।

हिमालय में प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि पर प्रख्यात हिमालयी विशेषज्ञाे, वैज्ञानिकों, आध्यात्मिक गुरुओं /चिंतकों व शोध संस्थाओं/सम्पादक पत्रों का दृष्टिकोण:-

माननीय, हिमालय में प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि पर प्रख्यात हिमालयी विशेषज्ञाे, वैज्ञानिकों, आध्यात्मिक गुरुओं /चिंतकों व शोध संस्थाओं का दृष्टिकोण का भी यदि वास्तविक मूल्यांकन किया जाए तो सभी का एकमत है कि हिमालय में आज निरंतर जारी विकास का मॉडल ही विनाश पैदा कर रहा है। आपके ध्यानाकर्षण हेतु कुछ विशेष ऐसी टिप्पणीयाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:-

"भौतिक भव्यता तो देश-विदेशों में कई जगहों पर है, लेकिन बद्रीनाथ धाम में आध्यात्मिक दिव्यता है, यह अनावश्यक निर्माण कार्यों से नष्ट हो सकती है। सरकार का उद्देश्य कितना भी पवित्र क्यों ना हो परन्तु धार्मिक क्षेत्र में निर्माण कार्यों को धार्मिक गुरुओं के परामर्श के आभाव में कभी भी नहीं किया जाना चाहिए था। निर्माण के कार्यों से बद्रीनाथ में कई पवित्र जल धारायें बन्द हो चुकी हैँ। मंदिर परिसर के 75 मीटर के व्यास में दिव्य जलताप कुंड और पंच धारायें धरती के नीचे से आती हैँ जिनपर निर्माण के कार्यों के कारण उनके विलुत होने तक का खतरा मंडराने लगा हैं, वैज्ञानिक भी मानते हैँ कि हिमालय की संवेदनशीलता का सम्मान किया जाए और आध्यात्मिक गुरु भी कहते हैं कि बद्रीनाथ धाम जैसे पवित्र स्थलों की दिव्यता के साथ छेड छाड़ नहीं हो।" - जगद्गुरु स्वामी अवमुकतेश्वरानन्द जी महाराज, शंकराचार्य बद्रीकाश्रम ज्योतिर्मठ मठ, भारत।

"समिति का यह भी मानना ​​है कि पर्यावरण मंजूरी के लिए एक-आकार-फिट-सभी दृष्टिकोण का पालन नहीं किया जाना चाहिए, विशेष रूप से देश के पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों, जैसे जोशीमठ, मसूरी, धनोल्टी [उत्तराखंड में], आदि के लिए... आर्थिक हित के बजाय पर्यावरणीय हितों को आगे बढ़ाने के एकमात्र उद्देश्य के साथ एक अधिक सावधानीपूर्वक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।....केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को हिमालयी क्षेत्र में पारिस्थितिक रूप से विनाशकारी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए स्पष्ट समयसीमा के साथ एक व्यावहारिक और कार्यान्वयन योग्य कार्य योजना तैयार करनी चाहिए।" - विज्ञान और प्रौद्योगिकी, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन पर संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट।

"हिमालय बेल्ट में भारी जलवायु परिवर्तन देखा गया है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भूमि उपयोग में परिवर्तन, वनों की कटाई, बांधों और सड़कों के निर्माण से ढलान की अस्थिरता, गंदगी का डंपिंग, वनों की कटाई और संबंधित कटाव ने इन जलवायु घटनाओं के मानव और पर्यावरणीय प्रभावों को कई गुना बढ़ा दिया है।" - हिमालयी पर्यावरण व पारिस्थितिकी पर क्रियाशील 130 पर्यावरणीय चिंतकों द्वारा 06 अप्रैल 2023 को जोशीमठ की पीड़ा पर जारी पत्र से उद्वित।

"अगले दशक में भारतीय और तिब्बती हिमालय के लिए लगभग 400 नए बांध प्रस्तावित हैं। उनके साथ पारिस्थितिकी तंत्र में और अधिक बदलाव आएगा और जलमग्न बस्तियों से अधिक लोग विस्थापित होंगे। उच्च भूकंपीय गतिविधि और नाजुक भूविज्ञान वाले क्षेत्र में इस तरह के बड़े पैमाने पर बांध निर्माण से पता चलता है कि इन योजनाओं को मंजूरी देने वाले नीति-निर्माता या तो वैज्ञानिक प्रमाणों को नहीं समझते हैं या इसे अनदेखा करना चुनते हैं।" - एम.के.पंडित की दी नेचर मे टिप्पणी

"बहुत सी घटनायें (हिमालय की प्राकृतिक आपदाएं) मौसम में आ रहे बदलाव से हो सकती हैँ परन्तु हमें यह याद रखना चाहिए कि प्रत्येक दुष्कारी घटना मौसम बदलाव का परिणाम नहीं हैँ। बहुत सारी घटनायें तो विकास के लिए अपनाये जा रहे विधवंसकारी तरीके हैँ। परियोजना निर्माण कार्यों में विष्पोटकों का प्रयोग पहाड़ों को कमजोर बना रहा है और भूस्खल्लन का खतरा बढ़ रहा है। इसी प्रकार से निर्माण परियोजनाओं का मलबा नदियों में गिरकर वर्षा बाढ की तीव्रता को खतरनाक स्तर पर पहुंचा रही हैँ।" - कविता उपाध्याय, जल एवं पर्यावरण नीति विशेषज्ञ।

"मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन ने वातावरण, महासागर और भूमि को गर्म कर दिया है।... पिछले कुछ दशकों में, हिंदू कुश हिमालय (HKH) क्षेत्र में तेजी से गर्मी बढ़ रही है और भारी वर्षा में वृद्धि हो रही है।" - डॉ आर. कृष्णन (वैज्ञानिक) इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ ट्रॉपिकलॉजी (2021 मे आयोजित सम्मेलन मे)

"हिमालय की बहिने-बेटियां पहाड़ के लिए सदियों से चिंतनशील रही हैँ। हमारे लिए हिमालय देव स्थान है, पूज्यनीय है। हमारी आजीविका व समुचा जीवनयापन हिमालय पर ही आश्रित है। हमारी सूक्ष्म जरूरतों के लिए घास, पानी व ईंधन हमें जितना हिमालय से मिलता है, उससे अधिक हम जंगलों की जुगाली करते हैं व यदि देश पर संकट आया तो रक्षा के लिए भी तन मन धन से खड़ी हो जाती है। गौरा देवी और हमारी चमोली की बहिने तो हिमालय के संसाधनों (पेड़ों) की रक्षा के लिए स्वयं पर आरा चलवाने तक के लिए तैयार हो गईं थी और पेड़ों से चिपक गईं थीं। हम भी धारी देवी को बचाने के लिए खूब संघर्षरत रहीं थी। परन्तु आज की व्यवस्था हिमालय के प्रति क्रूर बनी हुई हैं। हिमालय भी अब दंड देने की मुद्रा मे आ चुका हैं। धारी देवी की रुष्टता को केदारनाथ आपदा मे सभी ने देखा ही हैं।" - श्रीमती बीना चौधरी, धारी देवी बचाने हेतु क्रियाशील रही सामाजिक कार्यक्रत्री।

"हिमालय मे विकासीय गति एकल पक्षीय हो रही है। हमें इसके लिए equilibrium effect को समझना होगा। कोई भी संतुलन एक अथवा एक से अधिक धुरी पर केंद्रित होती है। किसी भी धुरी मे बदलाव से संतुलन बिगड जायेगा और असंतुलन की स्थिति प्राप्त होगी। पृथ्वी मे यही संतुलन सागर, मरुस्थल, पठार, मैदान व पहाड़ आदि मिलकर करते हैँ। मनुष्य भौतिकतावाद की दौड़ मे जिस प्रकार की विकासीय क्रिया कर रहा है उससे पृथ्वी पर असंतुलन बढ़ता जा रहा है और परिणाम दुष्कर होते जा रहे हैँ। विडंबना यह है कि विश्वभर मे दुभर होते हालात से भी सही सबक ग्रहण नहीं किया जा रहा हैं और हिमालय मे भी अनावश्यक प्रयोग किये जा रहे हैँ। ठोस वैज्ञानिक समझ विकसित किये बिना सभी इंजीनियरिंग प्रयोग के कार्य देर सबेरे विनाश की ओर हिमालय को धकेल रहे हैँ। धारी देवी को हटाने से उपजी केदारनाथ आपदा, जोशीमठ धंसाव, नंदा ग्लेशियर टूटने से विष्णु गाड़ का हादसा, सिलक्यारा टनल ध्वस्त होना आदि इसी विनाश प्रक्रिया की ओर निशानदेही कर रही हैँ।" - श्री विपिन मैठाणी, पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष, श्रीनगर, पौड़ी गढ़वाल।

"हमारी पर्यावरण अनुपालन प्रणाली अस्तित्वहीन है। इसके अलावा, हमारे पास कोई विश्वसनीय संचयी प्रभाव मूल्यांकन प्रक्रिया नहीं है, और इसलिए उत्तराखंड के किसी भी नदी बेसिन के लिए आपदा की कमजोरियों, वहन क्षमता और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का विश्लेषण करने का कोई तरीका नहीं है। ऐसे आकलन के अभाव में नाजुक पारिस्थितिकी में बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप करना विनाशकारी परिणामों को आमंत्रित करने के लिए बाध्य है।" - श्री हिमांशु ठक्कर, पर्यावरण कॉलमनिस्ट

"बद्रीनाथ में जोशीमठ से अधिक खतरा है। बद्रीनाथ एक हिमनद घाटी (ग्लेशियल वैली) है जहां करीब पंद्रह साल पहले तक ग्लेशियर मौजूद थे। भू-संरचना के हिसाब से देखें तो यह घाटी वी के आकार में नहीं बल्कि यू के आकार में है और पहाड़ बिल्कुल ऊर्ध्व (वर्टिकल) खड़े हैं और दोनों ओर ग्लेशियल मोरेन (हिमोढ़) हैं जिन पर यह शहर बसा है। यह बहुत ही ढीला मटीरियल है और इसकी भार वहन क्षमता कम है और यहां भारी निर्माण करना ख़तरनाक है।" - डॉ एस. पी. सती, हेमवती नंदन गढ़वाल केंद्रीय विश्विधालय, उत्तराखंड।

"आपदाओं को उनके उत्पन्न करने वाले तत्वों के आधार पर "प्राकृतिक आपदाओं" या "मानव निर्मित आपदाओं" के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। हालाँकि, आपदाओं का अधिक आधुनिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य इस भेद को कृत्रिम मानता है क्योंकि अधिकांश आपदाएँ लोगों और उनकी सामाजिक और आर्थिक प्रणालियों के कार्य करने या न करने के कारण होती हैं। उदाहरण के लिए, उत्तराखंड में 16-17 जून, 2013 को अचानक आई बाढ़ संभवतः नदी के किनारे अनियंत्रित खनन के कारण हुई थी।" - मणिपुर इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के शोधार्थियों हरिकुमार पल्लथडका एवं लक्ष्मी किराना पल्लथडका द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट 

माननीय, आप भलीभांति देख सकते हैँ कि प्रत्येक स्तर पर हिमालय के विषयक जो धारणा उभर रही है वह स्पष्ट कथन करती है कि - हिमालय संवेदनशीलता को नजरअंदाज करके निर्माण गतिविधियाँ, खनन गतिविधियां, पनबिजली परियोजनाओं की स्थापना, सामान्य मैदानों बुग्यालों व तालों तक का अतिक्रमण, धार्मिक पर्यटन की अंध बाढ़ रूपी भीड़ भाड़ सहित अनियोजित एवं अनियंत्रित पर्यटन को बढ़ावा देना और लगातार बढ़ता वाहन यातायात आपदाओं के मुख्य कारण हैं, जो लगातार नई चुनौतियाँ पैदा करते जा रहे हैं। पहाड़ों के किनारों को काटा जा रहा है, जंगलों और पेड़ों को साफ़ किया जा रहा है, और सारा मलबा नदियों में बहाया जा रहा है। अतः इसी परिपेक्ष मे आज दिनांक 11 दिसम्बर 2023 को "विश्व पहाड़ दिवस" के सुनहरे अवसर पर आपको यह "खुला पत्र" इस प्रार्थना का साथ प्रेषित कर रहा हूँ कि सिलक्यारा की घटना से समय रहते सबक ग्रहण किया जाए। जिन माँ शक्ति ने सिलक्यारा मे आपकी भक्तिवश आपकी प्रतिष्ठा पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ने दिया उनको प्रतिदान स्वरूप आप सभी योजनाओं / परियोजनाओं का गुणवत्ता आधारित दीर्घकालीन मूल्यांकन समय समय पर कराया जाना सुनिश्चित करें। एवं हिमालय के पर्यावरण - परिस्थितिकी को केंद्र मे रखकर समस्त अवस्थापना योजनाओं को मंजूरी प्रदान करें। इस पत्र मे उल्लिखित सभी प्रबुद्ध बुद्धिजीवीयों, हिमालय प्रेमियों के दृष्टिकोण को सम्मान प्रदान करते हुए, हिमालय के नगरों, गाँवो को 'कंकरीट का जंगल' बनने से रोकने हेतु आवश्यक कदम उठायें। इस हेतु यदि नीतिगत बड़े बदलाव करने हों अथवा कुछ अनावश्यक परियोजनाओं से पीछे कदम खींचने पड़े तो कृपया उसे भी बिना हिचकिचाये करें। कुल मिलाकर हिमालय की वास्तविक वेदना को सरकार की ओर से कान दें।

आपके कुशल नेतृत्व मे उत्तराखंड के उज्ज्वल भविष्य की कामना मे,

भवनिष्ठ,

भक्तानुरागी मुकुंद कृष्ण दास ("सैनिक शिरोमणि" मनोज ध्यानी)
सम्पर्क सूत्र :
9756201936, 9412145589
ईमेल :- UKRajyaNirmanSenaniSangh@gmail.com

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